बीजेपी फंस गई श्रीराम के ‘जाल’ में
मंदिर, मंदिर और मंदिर की बात सुनते-सुनाते मैं 45 बरस का हो गया। पांचवीं कक्षा में पढ़ाई के दौरान सुनते-सुनाते यह समझ में आ गया था कि आखिर मंदिर का मामला क्या है। संयोगवश हमारा पैतृक घर अयोध्या रियासत के अंदर ही आता है। मंदिर के प्रति अति उत्साह हमेशा बना रहता है, ऐसा लगता है कि भगवान श्रीराम का नाम आते ही हनुमान जी की तरह ताकत चौगुनी हो जाती है। हिचकी आने पर भी जय श्रीराम, सांस लेने पर भी जय श्रीराम और सोते समय भी जय श्रीराम का ही नाम हृदय में उठता रहता है। लेकिन इसके बावजूद 24 नवंबर 2018 को अयोध्या में धर्मसभा का आयोजन और फिर दिल्ली में 9 दिसम्बर को विशाल धर्मसभा आयोजित की गई। राजधानी दिल्ली में चहुंओर रामभक्त जय श्रीराम के नारे लगाते हुए नजर आए। सड़कों से लेकर ट्रक और बसों की छतों पर जय श्रीराम के झंडे लिए भक्तों का वो विशाल जत्था देखा गया, जो शायद भगवान श्रीराम के नाम पर इससे पहले कभी न हुआ होगा, यदि हुआ भी होगा तो मुझे याद नहीं होगा। मेरी समझ में तो यह सबसे विशाल धर्मसभा भगवान श्रीराम के नाम पर आयोजित की गई थी। 6 दिसंबर 1992 को जिसे तथाकथित बाबरी गुम्बद बोला जाता था, उसे नेस्तनाबूद कर दिया गया। 6 दिसंबर 2018 को 26 वर्ष हो गए, अभी तक मंदिर पर हाईकोर्ट हो या सुप्रीम कोर्ट सभी की तरफ से तारीख ही तारीख दी जा रही है। लेकिन 9 दिसम्बर को राजधानी दिल्ली में ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर भव्य बनाएंगे’ जैसे नारों से दिल्ली गुंजायमान हो गई थी। सवाल यहां थोड़ा पेंचीदा लगता है कि राजधानी दिल्ली में लाखों की संख्या में पूरे देश से लोगों का जो जमावड़ा हुआ, इसके पीछे राजनैतिक मंशा थी या लोगों की भगवान श्रीराम के प्रति श्रद्धा। गौरतलब है कि 2014 में राम मंदिर के मुद्दे को लेकर भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। आपको बताते चले कि भारतीय जनता पार्टी के अधिकांश नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक ही हैं और पार्टी पर ऐसे प्रचारकों का कब्जा बरकरार है। भाजपा की सरकार को बने साढ़े चार साल हो गए, इन साढ़े चार सालों में देश की जनता को चुनावी वर्ष के दौरान ही भगवान श्रीराम याद क्यों आते हैं। इसके कारणों को समझना होगा। शायद चुनावी वर्ष के दौरान यह सब कार्यक्रम प्रायोजित तरीके से तो नहीं किए जाते। हो भी सकता है और नहीं भी। लेकिन एक बात और शायद आपको जानकारी ही हो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद आरएसएस के प्रचारक तो है ही, इसके साथ ही राष्ट्रभक्त, देशभक्त और भगवान श्रीराम में अटूट श्रद्धा रखने वाले हैं। इतनी सारी खूबियां रखने वाले नरेंद्र मोदी देश के अनोखे प्रधानमंत्री हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि इन सारी बातों को याद दिलाने की आवश्यकता क्यों है? जवाब है कि आवश्यकता इसलिए है क्योंकि चुनाव के दौरान ही हमारे इष्ट भगवान श्रीराम देश को अचानक संकटमोचक की तरह क्यों याद आ जाते हैं और मंदिर की बात जोर-शोर से उठने लगती है। भगवान श्रीराम तो चौदह वर्ष पूरा होते ही वनवास से अयोध्या लौट आए थे, लेकिन 26 वर्ष हो गए और अभी तक वे ऊपर लटके हुए दिख रहे हैं। उनको जमीन पर कब स्थापित किया जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। 26 वर्षों के दौरान अपने को भगवान श्रीराम का भक्त बताने वाले भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने लगभग 12 वर्ष तक देश पर राज्य किया है। ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का वह बयान जिसमें उन्होंने कहा कि राम जन्मभूमि का ताला मेरे बाप ने खोला था और भगवान श्रीराम का मंदिर मैं ही बनवाऊंगा। कुछ हद तक सार्थक लगता है। ध्यान रहे कि जब बाबरी ढांचा विध्वंस हुआ था, उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। भगवान राम अपने आपमें दिव्य हैं, उनके लिए किसी कोर्ट अथवा सरकार के नियम की जरूरत नहीं होनी चाहिए। क्या बाबरी विध्वंस के समय कोर्ट ने कोई निर्णय दिया था। जो लोग मंदिर बनाने को लेकर धर्मसभा का आयोजन कर रहे हैं, वे मंदिर बनाने के लिए लोगों से अपील कर सकते हैं और इकट्ठा होकर मंदिर का निर्माण हो सकता है। सन् नब्बे में जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह की सरकार थी, उस समय पूरे देश से जो कारसेवक आए थे। उनमें मैं भी एक स्वयंसेवक के रूप में कारसेवा में लगा हुआ था। वह घटना याद करके हृदय द्रवित होता है। लाखों की संख्या में गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया था। हजारों की संख्या में लोगों ने अपनी जान गंवाई थी। अरबों रुपये की संपत्ति स्वाहा कर दी गई थी। लेकिन शायद भगवान श्रीराम यह सोचते होंगे कि लोग हमारे नाम पर ऐसा क्यों करते हैं। मैं तो किसी को अप्रिय और अनीतिगत कार्य करने की इजाजत नहीं देता हूं। जिस भगवान श्रीराम के रामराज्य की दुहाई आज के राजनेता देते हैं तो भला छिन्न-भिन्न करने का कार्य क्यों करते हैं। जाहिर है यह सब सत्ता में बने रहने का खेल है। आज के दौर में घर-परिवार से लेकर उद्योग जगत, फिल्म जगत या यूं कहिए छोटी-मोटी नौकरी कर रहे लोगों के साथ राजनीति की जाती है। राजनीति से मेरा तात्पर्य पर है कि वह नीति, जिससे राज करने में किसी प्रकार की कोई बाधा उत्पन्न न हो। मैं इसको अपनी भाषा में ‘डर’ भी कहता हूं। एक डर ऐसा जो व्यक्ति को राजनीति करने पर मजबूर करता है। चाहे वह भगवान श्रीराम हो या फिर किसी कॉलोनी का रामसिंह। ऐसे उदाहरणों की आवश्यकता क्यों? ऐसे उदाहरणों की आवश्यकता है। क्योंकि जब हम सबके आराध्य भगवान श्रीराम को स्थापित करने के लिए ऊहापोह की स्थिति अभी तक बरकरार है। अभी यह तक नहीं कहा जा सकता कि रामलला का मंदिर कब बनेगा। झूठ बोलने की एक सीमा होती है। एक न एक दिन लोगों की समझ में आ ही जाता है कि फलां पार्टी या फलां व्यक्ति झूठा है। ‘झूठों के सरदार, देश के चौकीदार’ कब होगा राम मंदिर का निर्माण। अपने किसी व्यक्ति ‘नृपेन्द्र मिश्र’ को पद देने के लिए तो किसी कोर्ट के फैसले का इंतजार नहीं होता, कानून खुद ही बना लिए जाते हैं। भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर बने, यह सवा सौ करोड़ जनता की पुकार है। शायद लोकसभा, राज्यसभा में भी भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर बने, इस मुद्दे पर अधिक से अधिक वोट पड़ेंगे तो फिर साढ़े चार साल सत्ता में बने रहकर यह पुण्य का कार्य क्यों नहीं किया गया। भगवान से रूठी भारतीय जनता पार्टी अपना हश्र पांच राज्यों के विधानसभा नतीजे से समझ सकती है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी भगवान के दर पर मत्था टेक दिया है। इसका नतीजा उन्हें पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला। कल तक जो अखाड़े में सबसे कमजोर पहलवान की भूमिका में थे, उन्हें लोग अब कड़ी टक्कर देने वाला पहलवान कहने लगे। यह महज संयोग नहीं है, एक तरफ आरएसस के प्रचारकों की ‘झूठी’ साधना है तो दूसरी तरफ तन-मन से लगे हुए एक कमजोर पहलवान की भगवान श्रीराम के प्रति दिल से की गई आराधना है, जो अब अखाड़े में धोबिया पाट मारकर चित करने के लिए तैयार खड़ा है।
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