श्रीलंका में तमिल हिन्दुओं की स्थिति

Ankalan 24/7/2022

श्रीलंका इन दिनों अपनी आंतरिक अस्थिरता और आर्थिक संकट के चलते दुनिया भर में चर्चा का विषय बना हुआ है , परन्तु इन संकटों के मध्य एक ऐसा संकट भी है जिसकी तरफ अधिकतर लोगों का ध्यान नहीं जा रहा है और वह संकट है श्रीलंका में तमिल हिन्दुओं की स्थिति |
,  दिनांक २३ जुलाई को दिल्ली के जन्तर मंतर पर हिन्दू संघर्ष समिति नामक संगठन ने श्रीलंका में २३ जुलाई १९८३ को तमिल हिन्दुओं के नरसंहार को याद करते हुए ब्लैक जुलाई दिवस मनाकर श्रीलंका में तमिल हिन्दुओं के विषय पर लोगों का ध्यान खींचने का प्रयास किया |
,  श्रीलंका में तमिल हिन्दुओं की स्थिति को समझने के लिए इसकी पृष्ठभूमि समझनी आवश्यक है|
,  वैसे तो भारत और श्रीलंका के सांस्कृतिक सम्बन्ध बहुत पुराने हैं और भारत में जब चोल, पांड्य और पल्लव वंश का शासन हजारों वर्षों तक रहा तो श्रीलंका में भी तमिल हिन्दुओं का शासन था |
,  इसलिए आज श्रीलंका में मूल निवासी तमिल हिन्दू ही हैं , परन्तु वर्तमान संदर्भ में आधुनिक श्रीलंका की बात यदि करें तो श्रीलंका भी ब्रिटिश उपनिवेश था और ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन था और उस काल में श्रीलंका द्वीप पर चाय बागान में काम करने के लिए तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी से तमिल हिन्दू मजदूर के रूप में श्रीलंका ले जाए गए और जब श्रीलंका ने १९४८ में सीलोन के नाम से एक अलग देश के रूप में ब्रिटिश कामन्वेल्थ के अंतर्गत स्वतंत्रता प्राप्त की तो इस देश में तमिल हिन्दुओं को हर प्रकार के अधिकारों से वंचित रखने का प्रयास हुआ और इस क्रम में सबसे पहले सीलोन सिटिजनशिप एक्ट लाया गया और केवल ५,००० तमिल हिन्दू श्रीलंका के मूल निवासी माने गए और श्रीलंका की कुल जनसँख्या का ११ प्रतिशत ७लाख तमिल हिन्दुओं को भारत का नागरिक बताकर उन्हें नागरिकता तथा मताधिकार से वंचित रखा गया |
,  भारत ने श्रीलंका में निवास करने वाले तमिल हिन्दुओं की स्थिति के सम्बन्ध में अनेक समझौते किये और पहले श्री जवाहरलाल नेहरू ने १९५४ में , श्री लालबहादुर शास्त्री ने १९६४ में, श्रीमती इंदिरा गांधी ने १९७४ में और श्री राजीव गांधी ने १९८७ में तमिल हिन्दुओं के विषय पर श्रीलंका सरकार के साथ समझौते किये पर श्रीलंका में सिंहली प्रमुखता की राजनीति के आधार पर सभी राजनीतिक दल तमिल हिन्दुओं को दोयम दर्जे का अधिकार देकर अपनी राजनीति करते हैं इसलिए इन समझौतों को कभी सही भाव में लागू नहीं किया गया ताकि तमिल हिन्दुओं का सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव श्रीलंका की राजनीति में न बढ़ने पाए | श्रीलंका ऐसा पहला देश है जिसने आधुनिक वैश्विक व्यवस्था में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू करने के बाद भी योजनाबद्ध रूप से कानून के जरिये तमिल हिन्दुओं को उनके मताधिकार और उनकी तमिल भाषा को देश की मुख्य धारा से अलग रखा |
,  इस विषय पर जब तमिल हिन्दुओं को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों से लम्बे समय तक वंचित रखा गया और लोकतांत्रिक ढंग से उनकी आवाज मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन सकी तो १९७० के दशक में श्रीलंका की राजनीति पूरी तरह बदल गयी |
,  १९७२ में जब बंगलादेश का निर्माण पाकिस्तान के एक हिस्से से हो गया तो पश्चिम की कुछ ताकतों के इशारे पर पाकिस्तान ने भारतीय उपमहाद्वीप में आतंकवाद के नए मोर्चे खोलकर भारत को कमजोर करने की रणनीति अपना ली और एक ओर पंजाब में खालिस्तान के आतंकवादी आन्दोलन को हवा देकर भारत से पंजाब और दूसरी ओर श्रीलंका में तमिल हिन्दुओं की आवाज के लिए भी आतंकवाद को हवा देना आरम्भ किया ताकि भारत में दक्षिण भारत पर भी दबाव आये |
,  १९७० के दशक के अंत में श्रीलंका में तमिल हिन्दुओं की आवाज उठाने वाले संगठनों को उग्रवाद के लिए प्रेरित किया जाने लगा और इसके दो तरफ़ा लाभ पर काम किया जाने लगा , तमिल हिन्दू के कुछ संगठन उग्रवाद की ओर झुक गए तो उसका आश्रय लेकर तमिल हिन्दुओं का नरसंहार होने लगा और २३ जुलाई १९८३ को यही हुआ , तमिल उग्रवादी संगठन एल टी टी ई के कुछ लोगों ने श्रीलंका की सेना के कुछ जवानों पर हमला कर उनकी ह्त्या कर दी और उसकी प्रतिक्रिया में करीब ३,००० तमिल हिन्दुओं का नरसंहार कई दिनों तक होता रहा और इसका परिणाम यह हुआ कि तमिल हिन्दुओं ने भारत में शरण ली |
,  इस घटना के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में पकिस्तान ने कुछ पश्चिमी देशों के इशारे पर (जो उन दिनों भारत के सोवियत रूस के कैम्प में होने से भारत के स्थान पर पाकिस्तान को समर्थन कर रहे थे) आतंकवाद को एक व्यापक उद्योग के रूप में स्थापित कर दिया और पंजाब में खालिस्तानी और श्रीलंका में एल टी टी ई के सहारे भारत को घेर लिया गया |
,  श्रीलंका में एक ओर एल टी टी ई पूरी तरह तमिल हिन्दुओं के लिए श्रीलंका के संविधान व लोकतान्त्रिक दायरे में उनके अधिकारों के लिए संघर्ष के लक्ष्य से भटक कर आतंकवाद उद्योग के गोद में जा बैठा और श्रीलंका के तमिल हिन्दू पूरी तरह दो पाट में पिसने लगे क्योंकि अधिकतर पश्चिमी देशों का श्रीलंका में यह हित हो गया कि एल टी टी ई तमिल हिन्दुओं के लिए अलग देश बना ले जिसके चलते तमिल हिन्दुओं को ईसाई भी बनाया जा सके और भारतीय उपमहाद्वीप में एक नया देश हो जो उनके हित सिद्ध करे और इस प्रयास में एल टी टी ई संगठन धीरे धीरे पश्चिमी देशों के इशारे पर काम करने लगा |
,  श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री राजीव गांधी ने भारतीय उपमहाद्वीप में आतंकवाद की इस पूरी समस्या पर देर से और गलत रणनीति से प्रतिक्रिया की |
,  श्रीलंका में तमिल हिन्दुओं के हितों को लेकर जो समझौते जवाहरलाल लाल नेहरू के समय से होते आये थे उन्हें लागू करने का दबाव कभी भी श्रीलंका सरकार पर नहीं बनाया गया और उसका सबसे बड़ा कारण जो मुझे समझ में आया वह था कि जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी व राजीव गांधी भारतीय उपमहाद्वीप में भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में बसे हिन्दुओं के हितों को लेकर गंभीर नहीं थे और उन्हें भारत की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा नहीं मानते थे और इस कारण उनकी सुरक्षा व अधिकार को सुनिश्चित करना अपना नैतिक कर्तव्य भी नहीं मानते थे और यह तथ्य भूलकर कि ये सभी हिन्दू कुछ वर्ष पहले तक भारत का ही हिस्सा थे और उनकी सुरक्षा हमारा दायित्व है , इस तथ्य को भुलाकर भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों में बसे हिन्दुओं को उन देशों के सहारे छोड़ दिया गया , जैसा कि भारत के विभाजन के तत्काल बाद हुआ कि पाकिस्तान गए हिन्दुओं के उत्पीडन पर उन्होंने जब भारत वापस आने की मांग की तो उनकी सुरक्षा या वापस भारत की वापसी या उन्हें नागरिकता दिलाने पर पर जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी को छोड़कर किसी ने भी कोई गंभीरता और रूचि नहीं दिखाई |
,  जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति को ही इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी अपनाया और इसलिए श्रीलंका के तमिल हिन्दुओं के विषय पर उस ढंग से प्रयास नहीं हुआ जैसा होना चाहिए था और इस कारण श्रीलंका के तमिल हिन्दू पूरी तरह दो पाट में पिसते रहे और उन्हें श्रीलंका में उत्पीडन का शिकार होना पड़ा|
,  अब बदली हुई परिस्थियों में भारत सरकार को श्रीलंका में निवास करने वाले तमिल हिन्दुओं और लम्बे समय से भारत में शरणार्थी शिविरों में जीवन व्यतीत कर रहे श्रीलंका के तमिल हिन्दुओं के लिए नए सिरे से प्रयास करने की आवश्यकता है|
,  श्रीलंका में वर्तमान संकट के मध्य श्रीलंका में चीन का भी एक नया आयाम जुड़ गया है| चूंकि श्रीलंका आरम्भ से ही सोवियत रूस और चीन के साथ झुकाव रखता रहा है इसलिए भारत के वामपंथी और सेक्युलर मिजाज के लोग श्रीलंका में तमिल हिन्दुओं के उत्पीडन, नस्ली नरसंहार और तमिल हिन्दुओं के मानवाधिकारों के उल्लंघन पर मौन रहते हैं , क्योंकि उनका अधिकतर समय और ऊर्जा भारत में अल्पसंख्यक अधिकारों के उल्लंघन के काल्पनिक मिथक गढ़ने में खर्च होता है|
,  वर्तमान स्थिति में इस बात की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि श्रीलंका का वर्तमान संकट आगे चलकर नस्ली और भाषाई संकट में बदलकर इस देश को फिर से गृहयुद्ध की स्थिति में धकेल सकता है और एक बार फिर तमिल हिन्दुओं की स्थिति खराब भी हो सकती है और भारत के सामने शरणार्थी संकट भी खड़ा हो सकता है , इसलिए भारत सरकार को श्रीलंका को मानवीय सहायता के साथ इस बात के प्रयास भी करने चाहिए कि इस बार श्रीलंका में सही मायने में संविधान , लोकतंत्र और तमिल हिन्दुओं के व्यक्तिगत जीवन, भाषा, व्यापार, धार्मिक अधिकारों की रक्षा हो|
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